Wednesday, May 4, 2011

यह एक टैस्ट पोस्ट है।

टैस्ट पोस्ट

श्रीश ने कहा,

उमेश जी महान हैं।

अविनाश वाचस्पति जी भी मौजूद थे। अविनाश वाचस्पति जी

Penguins

 

हम साथ साथ हैं।

Friday, November 19, 2010

‘भौतिकवादी मानव’





कविता -भौतिकवादी मानव

मानव तेरे जीवन मूल्य, किस ओर जा रहे हैं।

भौतिकता के रास्ते ही, बस तुझको भा रहे हैं।।

जगकर प्रातः वन्दना छोड़, तूने चाय सम्भाली है।

भजनों को छोड पॉप सॉंग की, बुरी आदत पाली है।।

माँ-बाप का हाल न जाना, अपना जीवन निहाल किया।

पैसों की खातिर तूने उनका, बार-बार अपमान किया।।१।।

बच्चे मम्मी-पापा बोले, तू फूले नहीं समाता है।

 

 

माँ-बाप के बुलाने पर भी, पास कभी न जाता है।।

नौ-महीने गर्भ में तुझको, फूलों सा है प्यार दिया।

तेरे और पत्नी के तानों ने, उनका जीवन बेहाल किया।।२।।

बदल दिए सब अस्त्र-वस्त्र, पश्चिम हवा के झोके से।

भाषा बदली चेहरा बदला, बदला अपनों को धोखे से।।

तीज-त्यौहार के तौर-तरीके, बह गए मयखाने में।

भाई-बहन का किया काम तो, लगा एहसान जताने में।।३।।

बेजान-बेसहारा, सूरदास कोई, देख तुझे दया न आती है।

घायलों को देख निकल जाना, क्या यही तुम्हारी थाती है।।

बस गिरे चाहे रेल भिड़ें पर, तेरा जीवन पटरी पर ठीक चले।

किसी के दुःख-सुख में साथ नहीं, फिर भी बनते हो सबसे भले।।४।।

जिनसे शिक्षा - दीक्षा ली, उन गुरुओं का मान नहीं भाया।

कभी धर्म-कर्म में लगा नहीं, सुख-सुविधा देख के मुस्काया।।

कहीं बम गिरे कोई डूब मरे, तुझको फर्क नहीं पडता।

केवल बच्चों की खातिर तू , दुनिया से लड़ता-फिरता।।५।।

अब भी वक्त सम्भल जा प्यारे,माँ-बाप सा कोई भगवान नहीं।

सेवाकर उनका मान करे जो , उस जैसा कोई इन्सान नहीं।।

दया-धर्म और परोपकार से, तुम भी तो अनजान नहीं।

सुबह का भटका रात को आए, तो जग में अपमान नहीं।।६।।

how are you


 

i am fine

Wednesday, November 10, 2010

test post



उमेश जी ने अपने ब्लॉग पर एक कविता लिखी। श्रीश ने उस पर टिप्पणी की। बीबीसी हिन्दी की साइट पर एक लेख पढ़ा। जय श्री राम

निष्कर्ष
  • cafg
  • asdfasd







संघ प्रार्थना

Wednesday, May 5, 2010

स्व-रचित कविता - ‘प्रकृति की छाया’

मैं जब भी उदास होता हूँ, तेरी छाया में चैन मिलता है।
जब कहीं न सुलझ पाऊं प्रभु, तू ही मेरे मन की सुनता है।।
कहते है मानव बढ़ रहा है, विकास की अंधी दौड में।
क्या ठीक क्या गलत छोड़ इसे, भौतिकता की होड़ में।।
अपने ही हाथों अपनों को, राह में पछाड़ रहा।
आगे बढ़ते-बढ़ते पीछे, क्या हो रहा अनजान रहा।।१।।
मानव की ताल चाँद पर, अब कदम बढाया मंगल पर।
किन्तु प्रकृति के बिना रहना, नर्क हो जाएं धरती पर।।
फिर क्यूँ ढोल पीट रहा है, अपने बढ़ते कदमों से।
क्या प्रकृति से आगे निकल सकता है, अपने धुंधले कर्मो से।।२।।
यह सत्य है आज भी मानव, भ्रमण करता प्रकृति का।
चाहे समुद्र तट हो, द्वीप समूह, विचरण करता सृष्टि का।।
किन्तु कुछ सिरफिरे लोगो ने, ईश्वर से आगे सोची है।
प्रकृति का दोहन कर करके, सारी वसुन्धरा नोची है।।३।।
वन्य प्राणी हो चाहे बाज गिद्ध, लुप्त होते जा रहे।
जोहड़, कूप, ताल, तलैया, ढूंढे से भी नहीं पा रहे।।
आसमाँ से ऊँची चिमनी, बेहाल कर रही मानव को।
गन्दे नाले-कारखाने, दूषित करते गंगा जल को।।४।।
अब तो सद्बुधि दे दो भगवन, मैं बढ चलूं सत्य की खोज में।
मोह-माया, लोभ-क्रोध छोड इसे, दुलार पाऊँ तेरी गोद में।।
प्रकृति का मैं शोषक नहीं , पोषक बन आभार दूँ।
सच्ची शान्ति,आनन्दपथ पर, जग को संग ले आगे बढूं।।५।।

Tuesday, March 2, 2010

testing


आज मैं मीटिंग में श्रीश के साथ वहाँ हमने doctor bansal